रोज़ा किन चीज़ों से टूट जाता है और उसका कफ़्फ़ारा क्या है?




⚠️ रोज़ा इन कामों से टूट जाता है:


1. जानबूझकर खाना-पीना से रोजा टूट जाता है। 🍔🥤

2. रोज़े की हालत में जानबूझकर उल्टी करना 🤮**अबू-दाऊद हदीस #2380**

3. बीवी/शौहर से शारीरिक संबंध बनाना
**बुखारी हदीस #1936**

4. हुक्का, सिगरेट या कोई और नशा करना 🚭

5. मासिक धर्म (हायज़) या प्रसव के खून का आना 🩸
हैज़ और निफ़ास (पीरियड) से रोज़ा टूट जाएगा चाहे किसी वक़्त भी हो।
 **बुखारी हदीस #304**

6. हाथ से मनी ख़रीज़ करने (हस्तमैथुन) से रोजा टूट जाता है।

7. जानबूझकर रोज़ा तोड़ना, बिना किसी शरई वजह के


नोट: अगर ख्वाब में मनी ख़रीज़ हो ( स्वप्नदोष ) जाए तो रोज़ा नहीं टूटेगा क्योंकि वो आपने जान बुझ कर नहीं किया।

⚠️ कफ़्फ़ारा (सज़ा) क्या है?


● अगर भूल से रोज़ा टूट जाए, तो कोई कफ़्फ़ारा नहीं, बस रोज़ा पूरा कर लो।

● अगर जानबूझकर तोड़ा, तो कफ़्फ़ारा ये है:

> एक गुलाम को आज़ाद करे , या
> लगातार 60 दिन के रोज़े रखना, या
> 60 गरीबों को खाना खिलाना 🍲
जो जानबूझकर रोज़ा तोड़े, उसे एक गुलाम को आज़ाद करना होगा या , 60 रोज़े रखने होंगे या 60 गरीबों को खाना खिलाना होगा।

☆ इस्लाम में रोज़े की बहुत अहमियत है, इसलिए इसे पूरी एहतियात के साथ रखा जाए।

हदीस:-

● हुमाيد बिन अब्द अल-रहमान ने बताया कि अबू हुरैरा (र•अ) ने उनसे कहा कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने उस व्यक्ति को आदेश दिया जिसने रमज़ान में रोज़ा तोड़ा था कि वह एक गुलाम को आज़ाद करे या लगातार दो महीने के रोज़े रखे या साठ गरीबों को खाना खिलाए।
*[सहीह मुस्लिम 1111 e ]*

● अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है: हम नबी (ﷺ) के पास बैठे थे कि एक व्यक्ति आया और कहने लगा, "अल्लाह के रसूल (ﷺ)! मैं बर्बाद हो गया।" नबी (ﷺ) ने पूछा, "क्या हुआ?" उसने कहा, "मैंने रमज़ान में रोज़े की हालत में अपनी पत्नी से सहवास (शारीरिक संबंध) किया।" नबी (ﷺ) ने पूछा, "क्या तुम्हारे पास कोई ग़ुलाम आज़ाद करने के लिए है?" उसने कहा, "नहीं।" नबी (ﷺ) ने पूछा, "क्या तुम लगातार दो महीने के रोज़े रख सकते हो?" उसने कहा, "नहीं।" नबी (ﷺ) ने पूछा, "क्या तुम साठ मिस्कीनों को खाना खिला सकते हो?" उसने कहा, "नहीं।" फिर नबी (ﷺ) कुछ देर बैठे रहे। उसी दौरान नबी (ﷺ) के पास एक टोकरी में खजूर लाई गई। नबी (ﷺ) ने पूछा, "वह व्यक्ति कहाँ है?" उस व्यक्ति ने कहा, "मैं यहाँ हूँ।" नबी (ﷺ) ने कहा, "इसे ले लो और सदक़ा कर दो।" उस व्यक्ति ने कहा, "क्या मुझसे भी ज़्यादा कोई गरीब है, ऐ अल्लाह के रसूल? अल्लाह की क़सम! इस पूरे शहर में मेरे परिवार से ज़्यादा गरीब कोई नहीं है।" यह सुनकर नबी (ﷺ) हँसे यहाँ तक कि आपके दाँत दिखने लगे, फिर आपने कहा, "इसे ले जाओ और अपने परिवार को खिला दो।"

(सहीह बुख़ारी 1936)

इस हदीस से यह स्पष्ट होता है कि रमज़ान के रोज़े के दौरान जानबूझकर सहवास (हम्बिस्तरी) करने पर कफ़्फ़ारा अनिवार्य है, जो कि ग़ुलाम आज़ाद करना, लगातार दो महीने के रोज़े रखना, या साठ गरीबों को खाना खिलाना है। यदि व्यक्ति इनमें से कोई भी करने में असमर्थ हो, तो उसे उपलब्ध संसाधनों के अनुसार कफ़्फ़ारा अदा करना चाहिए।


● अबू हुरैरा (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फरमाया:

"अगर कोई रोज़े की हालत में अचानक उल्टी कर दे, तो उस पर कोई क़ज़ा (रोज़े की भरपाई) अनिवार्य नहीं है। लेकिन यदि वह जानबूझकर उल्टी करता है, तो उसे उसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) करना होगा।"
(सुनन अबू दाऊद 2380)

इस हदीस से यह सिद्ध होता है कि अगर कोई व्यक्ति अनजाने में उल्टी कर दे, तो उसका रोज़ा नहीं टूटेगा। लेकिन अगर कोई जानबूझकर उल्टी करे, तो उसका रोज़ा टूट जाएगा और उसे इसकी क़ज़ा करनी होगी।


⚠️ रोज़ा छोड़ने की छूट: 


बुजुर्ग, बीमार और गर्भवती महिलाओं के लिए इस्लामी हुक्म

इस्लाम में रोज़ा हर सक्षम मुसलमान पर फ़र्ज़ है, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में रोज़ा छोड़ने की अनुमति दी गई है, बशर्ते उसकी क़ज़ा (भरपाई) या फ़िदया (प्रायश्चित) अदा किया जाए।


1. बुज़ुर्ग और लाइलाज बीमार व्यक्ति के लिए हुक्म

हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ि.) से वर्णित है:

"बड़ी उम्र के बूढ़े को रोज़ा छोड़ देने की छूट दी गई है, वह हर दिन के बदले एक मिसकीन (ग़रीब) को खाना खिला दे और उस पर क़ज़ा नहीं।"

[सहीह: दारे कुतनी 2/205; हाकिम 1/404;
इमाम दारे कुतनी रह. ने इस की सनद को सहीह कहा है। इमाम हाकिम रह. फ़रमाते हैं कि यह हदीस बुखारी की शर्त पर सहीह है और इमाम ज़हबी रह. ने भी उन की हिमायत की है। शैख़ सबही हल्लाक़ ने गवाहों की वजह से इसे सहीह कहा है। अत्तालीक़ अला सुबुलुस्सलामः 4/145; शैख हाज़िम अली काज़ी ने इसे सहीह कहा है। अत्तालीक अला सुबुलुस्सलामः 2/887]


> मालूम हुआ कि जो व्यक्ति बहुत वृद्ध (बुज़ुर्ग) हो और इस बात की संभावना न हो कि वह दोबारा रोज़ा रखने की ताक़त हासिल कर सके, या जो बीमारी से पूरी तरह निराश हो चुका हो, ऐसे लोग रोज़े के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाकर फ़िदया अदा कर सकते हैं।


2. हदीस ;
'अता (रह.) से रिवायत है कि उन्होंने इब्न अब्बास (रज़ि.) को यह आयत पढ़ते हुए सुना: "और जो लोग रोज़ा रखने की शक्ति रखते हैं, उनके लिए विकल्प है: या तो रोज़ा रखें, या प्रत्येक दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाएं।" (सुरह 2:184) इब्न अब्बास (रज़ि.) ने कहा, "यह आयत रद्द नहीं की गई है। यह उन बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं के लिए है जो रोज़ा रखने की शक्ति नहीं रखते, इसलिए वे प्रत्येक दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाएं।"

सहीह बुख़ारी 4505 - सुन्नाह.कॉम

सहीह बुख़ारी हदीस संख्या 4505 में है कि, हज़रत इब्न अब्बास (रज़ि.) ने सूरह अल-बक़रा की आयत 2:184 की तिलावत करते हुए बताया कि यह आयत रद्द नहीं की गई है, बल्कि यह उन बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं के लिए है जो रोज़ा रखने की शक्ति नहीं रखते। ऐसे लोग प्रत्येक रोज़े के बदले एक मिसकीन (गरीब) को खाना खिलाएं।

यह हदीस इस बात पर प्रकाश डालती है कि इस्लाम में बुजुर्ग और कमजोर व्यक्तियों के लिए रोज़े में रियायत दी गई है, ताकि वे अपनी क्षमता के अनुसार इबादत कर सकें।


3. गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाओं के लिए हुक्म

 हज़रत इब्ने अब्बास (रज़ि.) और हज़रत इब्ने उमर (रज़ि.) ने फ़रमाया: 
गर्भवती और दूध पिलाने वाली औरत का भी यही हुक्म है ।

[दारे कुतनी 2/207]

गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाएँ यदि रोज़ा रखने से उन्हें या उनके बच्चे को नुकसान पहुँचने का डर हो, तो वे रोज़े छोड़ सकती हैं और हर रोज़े के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाकर फ़िदया अदा कर सकती हैं।

⚠️ फ़िदया का तरीका क्या है?

• हर रोज़े के बदले एक गरीब को खाना खिलाना।
• उसका मूल्य, या भोजन (एक टाइम का भरपेट खाना) देना।
1 रोजे के बदले 1 मिसकीन (गरीब) को खाना खिला दे 1 वक़्त का अच्छा खाना । 
• 30 रोजे के बदले 30 मिसकीन को खाना खिला दे। 
• अगर खाना नही खिला सकते तो खाने की जगह पैसे दे 30 रोजे के बदले 30 मिसकीन को ।

>अगर कोई व्यक्ति भविष्य में रोज़े रखने की ताक़त हासिल कर ले, तो उसे क़ज़ा करनी चाहिए।


 ● इस्लाम में दया और सहूलत

इस्लाम रियायतों (सुविधाओं) का दीन है , और यह हर व्यक्ति की शारीरिक क्षमता का ख्याल रखता है।

अल्लाह तआला फरमाते हैं:
,,,,,अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है, कठिनाई नहीं,,,,,,
(सूरह अल-बक़रा 2:185)

इस्लाम में रोज़े से संबंधित यह सहूलियतें दर्शाती हैं कि यह धर्म मानव स्वभाव और उसकी जरूरतों को समझता है और हर हालात में आसान हल प्रदान करता है।


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